आलेख : अब तो असमंजस से उबरे कांग्रेस – रशीद किदवई
जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के मुद्दे पर कांग्रेस जिस तरह असमंजस से दो-चार हुई वह कोई नई बात नहीं, क्योंकि वह एक अरसे से दुविधा से ग्रस्त है। उसकी सबसे बड़ी दुविधा पार्टी अध्यक्ष को लेकर है। राहुल गांधी के उत्तराधिकारी को लेकर सोनिया और प्रियंका के साथ खुद राहुल ने अभी तक कोई पसंद जाहिर नहीं की है। इसके चलते इस मसले पर अनिश्चितता और बढ़ गई है। देखना तय है कि ये अनिश्चितता 10 अगस्त को होने वाली कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में दूर हो पाती है या नहीं? एक ऐसे दौर में जब पार्टी राजीव गांधी की 75वीं जयंती जोर-शोर से मनाने की तैयारी में जुटी है, तब असमंजस की मौजूदा स्थिति उसके लिए अच्छी नहीं। कुछ नेताओं को उम्मीद है कि अस्तित्व के संकट से जूझती पार्टी राजीव गांधी की विरासत के दम पर वापसी कर सकती है।
फिलहाल पार्टी के सामने सबसे बड़ी चुनौती राहुल का उत्तराधिकारी चुनने की है। इसे लेकर कांग्र्रेस में दो मत हैं। एक धड़ा सचिन पायलट या ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे युवा नेता को अध्यक्ष और मिलिंद देवड़ा को कोषाध्यक्ष बनाने पर जोर दे रहा है। वहीं दूसरा धड़ा मुकुल वासनिक, सुशील कुमार शिंदे या मल्लिकार्जुन खडगे को अंतरिम मुखिया और पायलट, सिंधिया और देवड़ा को उपाध्यक्ष बनाने के पक्ष में है। पार्टी भविष्य में राहुल की भूमिका को लेकर असमंजस में ही है। पहले यह सोचा गया कि राहुल बिना किसी पद के वैचारिक धुरी की भूमिका में रहेंगे, मगर वह और उनकी टीम पदाधिकारियों की नियुक्ति, संसदीय रणनीति और सभी मुद्दों पर अहम भूमिका निभाना चाहती है। हाल में राहुल ने कर्नाटक संकट के लिए किसी भीतरी व्यक्ति को ही दोषी बताकर सबको सन्न् कर दिया। राष्ट्रपति ट्रंप के बयान पर भी उनका रवैया शशि थरूर जैसे नेताओं की परिपक्व प्रतिक्रिया के उलट रहा। इसी तरह की स्थिति कश्मीर मामले में भी दिखी। फिलहाल ऐसे कोई संकेत नहीं मिल रहे कि पार्टी की दशा-दिशा सुधारने के लिए राहुल कोई देशव्यापी कवायद करने जा रहे हों।
कांग्रेसी हलकों से मिले संकेतों के अनुसार प्रियंका गांधी को 2024 के चुनावों में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश किया जा सकता है। हालांकि यह तीन व्यक्तियों पर निर्भर करेगा। एक राहुल, दूसरे उनके उत्तराधिकारी और तीसरी खुद प्रियंका। 2022 के उत्तर प्रदेश चुनाव प्रियंका गांधी के लिए एक कड़ी परीक्षा होंगे। उन्होंने सोनभद्र मामले में कुछ दम जरूर दिखाया, लेकिन उन्न्ाव मामले में वह केवल टि्वटर तक सीमित रह गईं। उत्तर प्रदेश में मिशन 2022 के लिए प्रियंका को रोज तकरीबन 16 घंटे कड़ी मेहनत करनी होगी। उन्हें सिद्दारमैया, ओमान चांडी और रमेश चेन्न्ीथला जैसे प्रांतीय क्षत्रपों की तरह उभरना होगा। हालांकि इसके लिए दिल्ली की सुकून भरी और चमक-दमक वाली जीवनशैली का मोह त्यागना पड़ेगा।
राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद कांग्र्रेस का रोजमर्रा का कामकाज चुनौती बन गया है। जहां सोनिया गांधी ने स्वयं को संसदीय मामलों तक सीमित कर लिया है, वहीं प्रियंका की जिम्मेदारी बढ़ गई है। उन्हें विद्रोहियों से निपटने और अहम नियुक्तियों में मदद के साथ ही अग्र्रिम मोर्चे से अगुआई करनी पड़ रही है। एक दिन वह मुंबई में बगावत को शांत करके दिल्ली लौटी ही थीं कि मालूम पड़ा अमेठी के राजा रहे संजय सिंह व उनकी पत्नी ने पार्टी छोड़ दी। अगर अगले साल दिल्ली के विधानसभा चुनाव से पहले नवजोत सिंह सिद्धू कांग्र्रेस का चुनावी चेहरा बनते हैं, तो इसके पीछे प्रियंका गांधी ही होंगी।
प्रियंका भले ही पार्टी अध्यक्ष पद की दावेदार न हों, लेकिन संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल जैसे लोग उनका पाला नहीं छोड़ेंगे। यह कोई राज नहीं है कि छत्तीसगढ़, अरुणाचल की राज्य इकाइयों के प्रमुख, युवा कांग्र्रेस के अंतरिम अध्यक्ष और महाराष्ट्र एवं हरियाणा के लिए चुनावी टीम का चयन जैसी तमाम नियुक्तियां गांधी परिवार की मौन सहमति से ही हुई हैं। कांग्र्रेस को करीब से जानने वाला कोई भी शख्स बता सकता है कि किसी भी नियुक्ति को केवल परिवार के वरदहस्त से ही सुनिश्चित किया जा सकता है। भले ही उसकी सहमति मौखिक रूप से क्यों न हो।
राहुल अभी भी लोकसभा चुनाव में भारी पराजय की जिम्मेदारी तय करने पर अड़े हुए हैं। वहीं प्रियंका और सोनिया इस मुद्दे को तब तक टालकर और सबको साथ लेकर चलने की इच्छुक दिखती हैं जब तक कि कांग्र्रेस फिर से कुछ चुनावी सफलताओं का स्वाद नहीं चख लेती। इस मामले में भी उम्मीदें पूरी तरह प्रियंका पर ही टिकी हैं कि केवल वही राहुल गांधी को उनका रुख नरम करने के लिए मना सकती हैं।
बहरहाल इंदिरा गांधी के दौर में 1969 और 1977 में कांग्र्रेस में जैसे विभाजन देखने को मिले थे, उसकी तुलना में 2014 और 2019 में हार के बावजूद कांग्र्रेस में किसी तरह की बड़ी बगावत या बड़े पैमाने पर नेताओं द्वारा पार्टी छोड़कर जाने के मामले नहीं देखने को मिले, लेकिन तकरीबन 15 पूर्व मुख्यमंत्रियों, दर्जनों पूर्व केंद्रीय मंत्रियों और पार्टी के पूर्व महासचिवों के रूप में वंशवादी नेताओं की एक पूरी खेप नई प्रतिभाओं को लुभाने के लिहाज से कुछ खास नहीं कर पाई है। जब मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों को चुनने की बारी आई तो राहुल की तुलना में प्रियंका का दखल ज्यादा रहा। इसके कारण ही यह बहस लगातार जोर पकड़ने लगी है कि ‘प्रियंका राहुल से बेहतर हैं।
अगर अगला अध्यक्ष पार्टी के लिए समर्पित न होकर केवल गांधी परिवार की कठपुतली होगा तो कांग्र्रेस के लिए शायद इससे बुरा कुछ और न हो। जब 1997 में बिना किसी पद के सोनिया गांधी पार्टी में शामिल हुई थीं तो अध्यक्ष रहे सीताराम केसरी की कोई हैसियत ही नहीं रह गई थी। जनवरी से मार्च 1998 के बीच जब केसरी को हटाया गया तो इस दौरान अक्सर ऑस्कर फर्नांडीस और वी जॉर्ज केसरी के पुराना किला स्थित आवास पर नियुक्तियों पर उनके दस्तखत कराने के लिए जाते। केसरी इस बात से खासे कुपित रहते थे कि उन्हें बस दस्तखत करने तक सीमित कर दिया गया। क्या कांग्रेस का मौजूदा संकट गांधी परिवार की विरासत की समाप्ति पर मुहर लगाएगा या एक नई शुरुआत का जरिया बनेगा?
फिल्मकार महेश भट्ट कहते हैं कि हर अंत की राह में भी एक अंत होता है। कांग्र्रेस पार्टी उस अंत के पड़ाव पर पहुंच गई है, लेकिन हर एक अंत में नई शुरुआत भी होती है। क्या कांग्रेस अपने पुराने खोल से बाहर निकलकर उसमें नए सुधार कर सकती है? निजी तौर पर कांग्रेसी उनसे अवश्य सहमत होने चाहिए।